नाद
प्रसिद्ध ग्रंथ संगीतरत्नाकर के अनुसार नाद की व्याख्या निम्नलिखित है।
नकारं प्रांणमामानं दकारमनलं बिंदु:। जात: प्राणअग्नि संयोगातेनम नदोभिधीयते ।।
अर्थ "नकार" प्राण वाचक है तथा दकार अग्नि वचाक है अर्थात जो अग्नि और वायु के योग से उत्पन्न हुआ हो ,उसे नाद कहते है ।
आहोतीनहतश्चेती द्विधा नादो निग्ध्य्ते सोय प्रकाशते पिंडे तस्तात पिंडो भिधियते
अर्थ, नाद के दो प्रकार है - १) आहत २) अनाहत
ये दोनो देह (पिंड) में प्रकट होते है ।
1. आहत नाद - जो नाद दो वस्तुओं के मिलने से अर्थात टकराने या रगड़ से उत्पन्ना होता है ।जो कानो से सुनाई देता है ।यानी हम दिन भी जो भी सुनते है वो यही नाद है, जेसे किसी कोई भी संगीत हो ,धुन हो ,गाड़ियों की आवाज़ ,आपके बोलने की आवाज़ ,पंखे या मोटर चलने की आवाज़ ,आदि .
यह नाद वर्तमान विज्ञानिक नियमो के अंतर्गत है
और इस नाद को हवा चाहिए प्रवाहित होने कि लिए ।
2. अनाहत नाद - यह नाद केवल अनुभव किया जाता है ,इससे आप अपने कानो से नहीं सुन सकते क्यूँकि इसके उत्पन्न होने का कोई राज नहीं है ।यह नाद स्वयंभू
रूप से प्रकट होता है और हर जगह मौजूद है ।
यह नाद वर्तमान विज्ञानिक सीमाओं से परे है । इसे केवल सिद्ध या ऋषि मुनि ही सुन सकते है।
स्वर
भारतीय संगीत में स्वर 22 श्रुतियो से मुख्य,12 श्रुतियो को स्वर कहते है । स्वर को नाम इस प्रकार है ।
सा - षडज
रे - ऋषभ a
ग - गांधार
म - मध्यम
प - पंचम
ध - धैवत
नी - निषाद
क्रमश - सा रे ग म प ध नी कहा जाता है ।
स्वरों के प्रकार - चल स्वर एवं चल स्वर
अचल स्वर - सा और प (जिनका श्रुति स्थान निश्चित है । चल - रे ग ध नी (जिनका श्रुति स्थान निश्चित होने कि साथ चल भी है ।)
चल स्वर कि 3 रूप है एक रूप है - शुद्ध ,कोमल और तीव्र
कोमल - ऋषभ, गांधार, धैवत, निषाद
तीव्र - मध्यम
कुलमिलकर हमारे पास 7 शुद्ध ,4 कोमल एवं 1 तीव्र स्वर है ,अर्थात 12 स्वर है जो क्रमश निम्नलिखित रूप में है
सा रे रे ग ग म मे प ध ध नी नी
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
ठाठ
सप्तक के 12 स्वरों में से 7 क्रमानुसार मुख्य स्वरों के उस समुदाय को थाट कहते हैं, । स्वरसप्तक, मेल, थाट, अथवा ठाट एक ही अर्थवाचक हैं। प्राचीन ग्रन्थों में मेल शब्द ही प्रयोग किया गया है। अभिनव राग मंजरी में कहा गया है– मेल स्वर समूह: स्याद्राग व्यंजन शक्तिमान, अर्थात् स्वरों के उस समूह को मेल या ठाट कहते हैं, जिसमें राग उत्पन्न करने की शक्ति हो।
थाट के लक्षण
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प्रत्येक ठाट में अधिक से अधिक और कम से कम सात स्वर प्रयोग किये जाने चाहिए।
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ठाट सम्पूर्ण होने के साथ-साथ उसके स्वर स्वाभाविक क्रम से होने चाहिए। उदाहरण के लिए सा के बाद रे, रे के बाद ग व म, म के बाद प, ध और नी आने ही चाहिए। यह बात दूसरी है कि ठाट में किसी स्वर का शुद्ध रूप न प्रयोग किया जाए, बल्कि विकृत रूप प्रयोग किया जाए। उदाहरणार्थ भैरव ठाट में कोमल रे–ध और कल्याण ठाट में तीव्र म स्वर प्रयोग किये जाते हैं।
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किसी ठाट में आरोह-अवरोह दोनों का होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक ठाट के आरोह और अवरोह में कोई अन्तर नहीं होता। केवल आरोह या अवरोह को देखन से ही यह ज्ञात हो जाता है कि वह कौन सा ठाट है।
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ठाट गाया-बजाया नहीं जाता। अत: उसमें वादी-सम्वादी, पकड़, आलाप-तान आदि की आवश्यकता नहीं होती।
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ठाट में राग उत्पन्न करने की क्षमता होती है।
हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में आजकल 10 ठाट माने जाते हैं। आधुनिक काल में स्व. विष्णु नारायण भातखण्डे ने ठाट-पद्धति को प्रचार में लाने की कल्पना की और ठाटों की संख्या को 10 माना है। ठाटों के नाम और स्वर निम्नलिखित हैं–
1
बिलावल ठाट – प्रत्येक स्वर शुद्ध।
सा रे ग म प ध नी सां
2
कल्याण ठाट – केवल म तीव्र और अन्य स्वर शुद्ध।
सा रे ग मे प ध नी सां
3
खमाज ठाट – नि कोमल और अन्य स्वर शुद्ध।
सा रे ग म प ध नी सां
आसावरी ठाट – ग, ध, नि कोमल और शेष स्वर शुद्ध।
4
सा रे ग म प ध नी सां
काफ़ी ठाट – ग, नि कोमल और शेष स्वर शुद्ध।
5
सा रे ग म प ध नी सां
भैरव ठाट – रे, ध कोमल और शेष स्वर शुद्ध।
6
सा रे ग म प ध नी सां
मारवा ठाट – रे कोमल, मध्यम तीव्र तथा शेष स्वर शुद्ध।
7
सा रे ग मे प ध नी सां
पूर्वी ठाट – रे, ध कोमल, म तीव्र और शेष स्वर शुद्ध।
8
सा रे ग मे प ध नी सां
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तोड़ी ठाट – रे, ग, ध कोमल, म तीव्र और शेष स्वर शुद्ध।
9
सा रे ग मे प ध नी सां
-
भैरवी ठाट – रे, ग, ध, नि कोमल और शेष स्वर शुद्ध।
10
सा रे ग म प ध नी सां
संगीत में श्रुति क्या होता है ?
नित्यं गीतोपयोगित्वमभिज्ञेयतवम्प्यूत।
लक्षे परोक्तसु पर्यातम संगीत्म्श्रुति लक्षणम ।।
उपरयुक्त श्लोक अभिनव राग मंजरी से लिया गया है जिसका अर्थ है, वह आवाज़ जो किसी गीत में प्रयुक्त की जा सके और एक दूसरे से स्पष्ट भिन्न पहचानी जा सके।
उदाहरण कि लिए अगर 240 कम्पन प्रति सेकंड कोई एक स्वर है तो 241 उससे भिन्न है लेकिन शायद उसे कुशल संगीतकार भी अपने कानो से नहीं पहचान पाए ,और यदि 240 से हम 245 क़रीब आते है तो शायद उसमें भिन्नत पहचानी जा सके ।
इसी आधार पर विद्वानो ने श्रुति की परिभाषा यह दी है की जो ध्वनि एक दूसरे से भिन्न स्पष्ट पहचानी जा सके ।
एक सप्तक में इसी प्रकार 22 एसे सूक्ष्म ध्वनिया है जो हम कानो से पहचान सकते है और उसमें स्पष्ट भेद कर सकते है ।
इन्हीं 22 ध्वनियो पर 12 स्वरों की स्थापना है जिसमें 7 शुद्ध ,4 कोमल ,1 स्वर तीव्र है ।
तस्या दवविंश्शतिभेरद श्रवनात शृत्यो मता:।
हृदयभ्य्न्त रसंलग्ना नदयो द्वविर्शतिमर्ता :।।
उपयुक्त श्लोक स्वरमेलकलानिधि से लिया गया है । जिसका अर्थ है हृदय स्थान में 22 नडिया होती है और उनकी सभी २२ ध्वनिया स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है । यही नाद के भी 22 भेद माने गए है ।
स्वरों में श्रुतियो को बाटने का नियम जानिए -
4 3 2 4 4 3 2
चतुश्चतुश्चतुश्चतुश्चैव षडजम माध्यमपंचमा।।
द्वे द्वे निषाद गंधारो तरस्त्रिषभोधैवतो ।।
अर्थात -
षडज मध्यम और पंचम स्वरों में चार चार श्रुतियाँ
निषाद और गांधार में दो दो श्रुतियाँ
ऋषभ और धैवत में तीन तीन श्रुतियाँ ।
भारतीय संगीत में 22 श्रुतियो के नाम
श्रुतियो के नाम आधुनिक व्यवस्था प्राचीन व्यवस्था
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तीव्रा - षडज
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कुमुदवती
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मंदा
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छनदोवती 4) षडज
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दयावती - ऋषभ
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रंजनी
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रतिका 7) ऋषभ
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रौद्री - गांधार
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क्रोधा 9) गांधार
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वज्रिका - मध्यम
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प्रसाऋणी
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प्रीति
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मार्जनी 13) मध्यम
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क्षिति - पंचम
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रक्ता
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संदीपनी
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आलपनी 17) पंचम
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मंदती - धैवत
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रोहिणी
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रम्या 20) धैवत
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उग्रा - निषाद
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क्षोभिणी 22) निषाद
ताल ज्ञान
ताल
भरत मुनि ने संगीत में काल (समय) नापने के साधन को 'ताल' कहा है । जिस प्रकार भाषा में व्याकरण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार संगीत में ताल का आवश्यकता होती है । गाने-बजाने और नाचने की शोभा ताल से ही है ; यथा -
तालस्तलप्रतिष्ठायामिति धायोद्यञि स्मृतः ।
गीतं वाद्यं तथा नृत्तं यतस्ताले प्रतिष्ठितम् ।।
संगीतरत्नाकर (तालाघ्याय)
ताल शब्द 'तल्' धातु से बना है । 'संगीत रत्नाकर' के अनुसार, जिसमें गीत वाद्य और नृत्य प्रतिष्ठित होते हैं, वह 'ताल' है । 'प्रतिष्ठा' का अर्थ होता है- व्यवस्थित करना, आधार देना या स्थिरता प्रदान करना । तबला, पखावज इत्यादि ताल-वाद्यों से जब गाने के समय को नापा जाता है, तो एक विशेष प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है । वास्तव में 'ताल' संगीत की जान है, 'ताल' पर ही संगीत- कला की इमारत खड़ी हुई है।
मात्रा
तालों में उनकी लम्बाई स्पष्ट करने वाली इकाई को 'मात्रा' कहते हैं। 'मात्रा' ताल का ही एक हिस्सा है, क्योंकि मात्राओं के योग से ही समस्त तालों की रचना हुई है । एक-सी लय या चाल में गिनती गिनने को मात्रा कह सकते हैं। यदि घड़ी की सैकिंड को हम एक मात्रा मान लें, तो १६ सैकिंड में तीनताल का ठेका बन जाएगा, १२ सैकिंड में एकताल का ठेका बन जाएगा और १० सैकिंड में झप ताल हो जाएगी। इसी प्रकार बहुत-सी ताले बनी हैं ।क्रिया का विस्तार है, 'लय' कहलाता है । मुख्य लय तीन प्रकार की होती हैं-
१. विलंबित,
२. मध्य
३. द्रुत ।
विलंबित लय
जिस लय की चाल बहुत धीमी हो, उसे 'विलंबित लय' कहते हैं । 'विलंबित
लय
ताल में एक क्रिया और दूसरी क्रिया के बीच की विश्रांति का काल, जो पहली ' लय का अंदाज, मध्य लय से यों लगाया जाता है—मान लीजिए, एक मिनट में आपने एक-सी चाल से ६० तक गिनती गिनी, तो उसे अपनी मध्य लय मान लीजिए । इसके बाद इसी एक मिनट में समान चाल से ३० तक गिनती गिनी, तो उसे 'विलंबित' लय कहेंगे, अर्थात् ३० तक गिनती जो गिनी गई, उसकी लय ६० वाली गिनती की अपेक्षा धीमी हो गई, अर्थात् प्रत्येक गिनती में कुछ देर लगी। विलम्ब का अर्थ है—देर ।
मध्य लय
जिस लय की चाल विलंबित से तेज और द्रुत से कम हो, उसे 'मध्य लय' कहते हैं । यह लय बीच की होती है । 'मध्य' का अर्थ है -बीच ।
द्रुत लय
जिस लय का चाल विलंबित लय से चौगुनी या मध्य लय से दुगुनी हो, उसे 'द्रुत लय' कहेंगे । ऊपर बताया गया था कि १ मिनट में समान चाल से ६० तक गिनती गिनकर 'मध्य लय' कायम की गई है। अब यदि १ मिनट में १२० तक गिनती गिनी जाएगी, तो निश्चय ही गिनती की चाल तेज हो जाएगी। द्रु त का अर्थ है- तेज़ ।
ताल के इस प्राण
प्रत्येक जाति के तालों में दस बातें अवश्य ही मिलेंगी, जिन्हें 'ताल के प्राण' कहते हैं-
१. काल,
२. क्रिया,
३. कला,
४. मार्ग,
५. अंग,
६. प्रस्तार,
७. जाति,
८. ग्रह,
९ . लय
१०. यति ।